पाँवो
पर पंख बाँधकर समय उड़ता रहा | अबाध गति से |
बच्चों
ने लिखा की यदि उसका
इधर आ पाना कठिन
हो रहा रहा है तो वे
ही सब अफ्रीका आने
की सोच रहे हैं | कुछ वर्ष वहीं बिता लेंगे |
उत्तर में केवल इतना ही था कि
काम बहुत बढ़ गया है। नैरोबी, मोम्बासा के अलावा अन्य स्थानों पर भी उसे
नियमित रूप से जाना पड़ता
है। यहाँ विश्वास के आदमी मिलते नहीं, इसलिए उसे स्वयं ही खटना पड़ता
है। यहाँ की आबोहवा, बच्चों
की पढ़ाई, अनेक प्रश्न थे। अज्जू जब तक अपनी
पढ़ाई पूरी नहीं कर लेता, तब
तक
कुछ
नहीं हो सकता। समय
निकालकर कभी वह स्वयं घर
आने का प्रयास करेगा।
बच्चों की बहुत याद आती है। घर की बहुत
याद आती है। लेकिन विवशता के लिए क्या किया
जाए !
अंत
में एक दिन वह
भी आ पहुँचा, जब
अज्जू ने अपनी पढ़ाई
पूरी कर ली। कहीं
अच्छी नौकरी की तलाश शुरू
हुई। पर पिता के
अब भी घर आने
की संभावना न दीखी तो उसने
लिखा--अम्माँ बीमार रहती हैं । बहुत कमजोर
हो गई हैं। एक
बार, अंतिम बार देखना भर चाहती हैं।
प्रत्युत्तर
में विस्तृत पत्र मिला, इलाज के लिए रुपए
भी। परंतु इस बार अज्जू
ने ही जाने का कार्यक्रम बना
लिया। अकस्मात् पहुँचकर पापा को चौंकाने की
पूरी-पूरी योजना।
टिकट
खरीद लिया। पासपोर्ट, वीसा भी सब देखते-देखते बन गया। और
एक दिन दिल्ली से वह
विमान से रवाना भी
हो गया।
उसके
मन में गहरी उत्कंठा थी कि पापा
उसे देखकर कितने चकित होंगे! उन्होंने कल्पना भी न की
होगी कि एकाएक वह
इतनी दूर, एक दूसरे देश
में इतनी आसानी से आ जाएगा। उनकी निगाहों में तो अभी वह
उतना ही छोटा होगा,
जब वह निक्कर पहनकर औवल
मे गुल्ली-डंडा खेलता था !
नैतोबी
के हवाई अड्डे पर उततरकर वह
सीधा उस पते पर
गया, जो पत्र में
दिया हुआ था। परंतु वहाँ ताला
लगा हा लगी दो हाँ ताला लगा था। हाँ, उसके पिता को पुरानी, धुँधली नेम-प्लेट अवश्य
लगी थी।
आस-पास पूछताछ की तो पता
चला कि एक वृद्ध
भारतीय अप्रवासी अवश्य यहाँ रहते हैं। रात को देर से
दफ्तर से घर लौटते
हैं। किसी से मिलते-जुलते
नहीं। निपट अकेले हैं।
वह
बाहर बरामदे में रखी बेंच पर बैठा प्रतीक्षा
करता रहा।
रात
को एक बूढ़ा व्यक्ति
ताला खोलने लगा तो देखा-एक
युवक सामान के सामने बैठा
ऊँघ रहा हैं।
उसका
नाम-धाम पूछा तो उसे अपनी
बाँहों में भर लिया।
बड़े
उत्साह से उसने स्वागत
किया।
भोजन
के बाद वह उसे अपने
कमरे में ले गए। दीवार
की ओर उन्होंने इंगित
किया--एक नन्हा बच्चा माँ की गोद में
दुलका किलक रहा है।
“यह
किसका चित्र है?”
युवक
ने गौर से देखा। कुछ
झेंपते हुए कहा, “मेरा।”
वृद्ध
इस बार कुछ और जोर से
खिलखिलाए, “मेरे बच्चे, तुम इतने बड़े हो गए हो! सच,
कितने साल बीत गए! जैसे कल की बात
हो !'' उन्होंने उसके चेहरे की ओर देखा, “तुम
शायद नहीं जानते, तुम्हारे पिता का मैं जिगरी
दोस्त हूँ। कितने लंबे समय तक हम साथ-साथ
रहे, दो दोस्तों की
तरह नहीं, सगे भाइयों की तरह। उसी
ने मुझे हिंदुस्तान से यहाँ बुलाया
था। बड़ी लगन से सारा काम
सिखलाया। साथ-साथ साझे में हमने यह कारोबार शुरू
किया। नैरोबी की आज यह
एक बहुत अच्छी फर्म है। यह सब उसी की
बदौलत है।” कहते-कहते वह ठिठक गए।
उसका
हाथ अपने हाथों में थामते हुए बोले, “' तुम्हारी माँ कैसी हैं?”
“अच्छी है।”
“भाई-बहन?!”
“सब ठीक हैं।”
“कहीं कोई कठिनाई तो नहीं?”
“ना, सब ठीक है।”
“बस,
यही मैं चाहता था, यही ।”'
हौले से उन्होंने उसका
हाथ सहलाया। देर तक शूत्य में पलकें टिकाए कुछ सोचते रहे। कुछ क्षणों का मौन भंग
कर खोए-खोए से बोले, '“देखो बेटा, तिनकों के सहारे तो
हर कोई जी लेता है।
लेकिन कभी-कभी हम तिनकों के साए मात्र
के आसरे, भँवर से निकलकर, किनारे
पर आ लगते हैं।
हमारा जिवन कुछ ऐसे ही तंतुओं के
सहारे टिका रहता है। यदि वे टूट जाएँ,
छिन्न-छिन्न होकर
बिखर जाएँ, तो पल भर में पानी के बुलबुलों की तरह सब समाप्त हो जाता है“
“जरा
सोचो बेटे !” वह खाँसे, “अगर तुम्हारे पिता की मृत्यु आज से १०-१५ साल पहले हो जाती,
तो क्या होता! भले ही वह एक अच्छी रकम तुम्हारे नाम छोड़ जाते।”उन्होंने युवक के असमंजस में डूबे, गंभीर चेहरे की ओर देखा,
“ रुपए रेत में गिरे पानी की तरह कहीं विलीन हो जाते और तुम अनाथ हो जाते ! तुम्हारी
माँ घुल-घुलकर कब की मर चुकी होती। तुम इतने हौसले से पढ़ नहीं पाते। जहाँ तुम आज हो,
वहाँ तक नहीं पहुँच पाते। निराशा की, हताशा की, असुरक्षा की इतनी गहरी खाई में होते,
कि वहाँ से अँधेरे के अलावा और कुछ भी न दीखता तुमको ।”
उन्होंने
अपने सूखे होंठों को जीभ की नोक से भिगोया, “हम दुर्बल होते हुए, असहाय, अकेले होते
हुए भी कितने-कितने बीहड़ वनों को पार कर जाते हैं, सहारे की एक अदृश्य डोर के सहारे।”
उनका गला
भर आया, “तुम्हारे पिता तो तभी गुजर गए थे। अपने साझे कारोबार से, उनके ही हिस्से के
पैसे तुम्हें नियमित रूप से भेजता रहा। कितने वर्षों से मैं इसी दिन, के इंतजार में
था” अब तुम बड़े हो गए हो। अपने इस कारोबार में मेरा हाथ बँटावो। तु सरसब्ज हो गए,
मेरा वचन पूरा हो गया, जो मैंने उसे मरते समय दिया था।”उनका
गला भर आया। डबडबाई आँखों से वह दीवार पर ठँगे एक धुँधले से चित्र की ओर न जाने क्या-क्या
सोचते हुए देखते रहे !
Nice story... Khup jast tym lavla 2nd part takayla.aase ch changle changle story post karat ja. Thanku 😊
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